कुछ ही दिनों पहलें की बात है| में बम्बई से अहमदाबाद की और ट्रेन से सफ़र कर रहा था और बारिश का मौसम था, इसीलिए खिड़की के बाहर का नज़ारा काफी खुशनुमा और आह्लादक था| मानो के गलती से इश्वर के हाथो से हरा रंग गीर गया और धरती पर आके फ़ैल गया हो! बस कुछ वैसा ही नजारा था| वृक्षों और वन जिस तरह दर्शन दे रहे थे की मानो उनके वहां दीवाली न हो! हरे नए कपड़ो में काफी सुंदर और घटिले लग रहे थे| में धीरे धीरे ध्यान में डूब रहा था! तभी मुझे एकाएक ख्याल आया की शायद मेरी ही नजर न लग जाए |
इसी खयालों में सूरत स्टेशन आ गया | मैंने एक बिक्रिवाले से पानी की बोटल ली और पांचसो का नोट थमाया...पर बिक्रिवाले के पास छुट्टे नहीं थे तो सुरत से ही सफर की शुरुआत करने वाले और मेरे बाजू की सिट में बैठे एक अपिरिचित व्यक्ति ने अपने जेब से बीस रूपये का नोट निकला और बिक्रिवाले भाई को दे दिया! मैंने भी कोई आनाकानी नहीं की! शायद् यह मेरा व्यवहार उनको भी काफी पसंद आया, फिर उनका शुक्रियादा करके मैंने कहा की, “में आपके २० रूपये अभी छुट्टे करवा के दे देता हू”, फिर उन्होंने भी कोई ज्यादा बात नहीं की और “कोई बात नहीं!” जैसा व्यवहारु उत्तर देकर अपनी पहचान करवाई|
यह घटना कुछ १० मिनिट की थी पर मेरा मन तो अभीभी खिड़की के बाहर ही था | धन्यवाद संबोधित करकें में फिरसे खिड़की के बाहर का आनंद लेने लगा | पर बाजु में बैठे भाई कुछ ज्यादा ही महात्मा मालुम हुए! में खिड़की बहार देख रहा था और तभी उन्होंने कहाँ की, “भाई साहब एकबार अंदर भी देख लीजिए अपनी और. वही नजारा आपके अंदर भी होगा इसीलिए आप यह खूबसूरती बाहर भी महसूस कर रहे हो!!!” |
पता नहीं पर मुझे उनकी यह बात इतनी बेहतरीन लगी की मैंने हाथ आगे करकर अपना परिचय दिया | उन्होनें अपना शुभ नाम सुरेश बताया | गाड़ी की रफ्तार के साथ-साथ हमारे बिच बातो का सिलसिला भी आगे बढ़ता रहा | उनका सफर बरोडा पर खत्म हो रहा था | पता ही नहीं चला की बरोडा आने में सिर्फ २० मिनिट बाकि रह गए थे! हमने ओशो पे बातें की और ध्यान पे भी बाते की हमने कही सारे विषयों पर अल्पमात्रा में बाते की, पर उनके हर शब्द सीधे दिल को छू रहे थे!
वेह अपना सामान लेने खड़े हुए और मैंने उनसे कहा की, "थोडा और वक्त बाकी है!" | तो वेह वापिस बैठ गए और मैंने उनसे एक और प्रश्न पूछाः तो उत्तर में उन्होंने मुझे एक बोहोत ही अच्छे शब्द सुनाएं....
“वो न जाने कोनसी घटना थी जो होने के बाद भी महसूस न हुई!
सिर्फ छूई और ब्रह्मज्ञान दे गई!”
में उनकी बात को समजा लेकिन उतर नहीं दे पाया, पर मुझे मेरे ज्ञानी होने के घमंड को जिन्दा रखना था इसी लिए मैंने कुछ भी मेल न खाने वाली बात कह डाली की,
“वो तो इश्वर ही उत्तर दे सकते है!”
“वो तो इश्वर ही उत्तर दे सकते है!”
फिर उन्होंने जो बात कही वो समजने के लिए बड़ी मुश्किल थी, पर समज आने पर जन्मोजन्म की थकावट को एक ही बार में दूर कर दिया!
तो उन्होंने जाते जाते यह कहा की,
“अब इश्वर से में प्रश्न ही क्या कहूं? शायद उन्होंने ब्रह्मज्ञान दिया ही इसीलिए होंगा की मुझे कोई प्रश्न ही न रहे !!!”
बस वह महात्मा उतना कह कर ट्रेन से उतरे. में इतना स्तब्ध रह गया था की उनका धन्यवाद भी ठीक से कर न पाया | और हां, वो २० रूपये भी लौटाने रह गए |
जय हो |
- कमल भरखडा
vat kai ?
ReplyDelete